कवर्धा । भोरमदेव में प्रत्येक वर्ष चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की तेरस को दशकों से बैगा आदिवासी बाबा भोले नाथ जिसे वे आदि देव बूढ़ादेव के रूप में पूजते है की विशेष पूजा अर्चना करते आ रहे है। इस दिन यहाँ दशको से भव्य और विशाल मेला भी भरते आ रहा है । इस मेले में शामिल होने आज भी दूर-दूर से बीहड़ जंगलो व दुर्गम पहाड़ीयो में बसे बैगा आदिवासी रात दिन पैदल चल सपरिवार बाबा भोरमदेव का दर्शन कर पारंपरिक रीती रिवाजो से पूजन कर आशीर्वाद लेने एवं मेले का लुफ्त उठाने पहुचते है।
मेले में शामिल होने बैगा आदिवासी अपनी परंपरिक वेश भूषा में साज श्रृंगार के साथ पहुंचते थे और अपनी पारंपरिक रितिरिवाजो से पूजा अर्चना करते थे। पर समय के साथ बदलाव भी आये है। आधुनिकता की छाप भी धीरे धीरे पड़ने लगी है। ज्ञातव्य हो की पहली बार भोरमदेव महोत्सव वर्ष 1994 में 27 ,28 व् 29 मार्च को अविभाजित मध्यप्रदेश में तत्कालीन राजनांदगांव कलेक्टर अनिल जैन की अध्यक्षता में प्रारम्भ हुआ था । उस समय कवर्धा के एस डी ओ राजस्व निसार अहमद हुआ करते थे। पहले भोरमेदेव महोत्सव में 2 दिन सांस्कृतिक कार्यक्रम तो भोरमेदेव मंदिर क्षेत्र में होते थे परंतु तीसरे दिन साहित्यिक गतिविधिया कवर्धा में हुआ करती थी जो अब जिला मुख्यालय बन चुका है। प्रथम भोरमदेव महोत्सव में साऊथ ईस्टर्न कल्चरल सोसायटी द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रमो को काफी सराहा गया था। विशेष रूप से माया जाधव और उनकी टीम द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रमो को सराहा गया था जिसकी चर्चा काफी दिनों तक होती रही। महाराष्ट्रियन लोक नृत्य गीत लावणी ने बेतहाशा तालिया बटोरी थी। महीनो उक्त कार्यक्रम आम लोगो के बीच चर्चा का विषय बना रहा था।
परंतु भोरमेदेव महोत्सव के इन 30 बरस के सफ़र में समय के साथ आदिवासियों के पारंपरिक मेले का सरकारीकरण होने से समय के साथ साथ शास्त्रीय संगीत व नृत्य लोक गीत नृत्य के साथ साथ मुम्बइया ठुमके भी लगने लगे। आदिवासियो का पारंपरिक मेला आज भोरमेदेव महोत्सव के रूप में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भले ही अपनी पहचान बना चुका है, परंतु रंगबिरंगी लाईटो और डीजे आर्केस्ट्रा की धुन और मुम्बईया ठुमके के बीच आधुनिकता की दौड़ विकास की चका चौंध के आगे टिमटिमा रही आदिवासी संस्कृति व सभ्यता अपनी पहचान खोती जा रही है। खाना पूर्ति के नाम पर कुछ वर्षो से प्रशासन व जनप्रतिनिधियों के हस्तक्षेप के चलते भोरमदेव महोत्सव के मूलरूप रंग और ढाल आधुनिक तौर तरीको से आयोजित करने की परम्परा शुरू हुई। शुरूआत के कुछ वर्षों में बैगा आदिवासियों को अपने मूल संसकृति से जुड़े नृत्य रीती रिवाज एवं गीतों को प्रदर्शन करने मंच मिलता रहा परंतु धीरे-धीरे महोत्सव आयोजन में घुसी राजनीति में बैगा आदिवासियों को मंच से दूर कर दिया गया। नाम को एकाध कार्यक्रम वह भी प्राइम टाइम को छोड़ कर जब भीड़ कम हो या शहरिया लोग कम होते है तब एकाध कार्यक्रम कर खाना पूर्ति कर ली जाती है। शासन प्रशासन द्वारा भले ही छत्तीसगढ़ की संस्कृति एवं सभ्यता को बचाने के नाम पर लाखों रूपये पानी की तरह बहाये जा रहा हैं परंतु विगत के कुछ वर्षों के अनुभव से भोरमदेव महोत्सव छत्तीसगढ़ की सभ्यता एवं सस्कृति से दूर बालीवुड की चमक-धमक की ओर आकर्षित हो मुंबईया ठुमकों का मंच बनता दिख रहा है। पूर्व के वर्षो से आयोजन के दौरान फिल्मी गानों पर भोरमदेव महोत्सव आयोजन समिति एवं तीर्थ प्रबंधकारिणी कमेटी के साथ-साथ अधिकारी भी बीड़ी जलइले ले जैसे संस्कृति और सभ्यता पर बदनुमा दाग रूपी गानो पर झूमते देखे जा चुके है। पाम्पलेट एवं प्रेस विज्ञप्ति जारी कर संस्कृति एवं सभ्यता की दुहाई देने वाले समिति के सदस्य आयोजन की आड़ में होने वाले जिले की पहचान बैगाओं की सभ्यता व संस्कृति से दूर हो आधुनिकता की चकाचौंध से ओत प्रोत कार्यक्रम के चयन भ्रष्टाचार एवं कमीशनखोरी के खेल के प्रति अपना विरोध बैठकों में दर्ज नहीं कराते जो कि चर्चा का विषय है आखिर प्रश्न उठता है कि समिति के लोग चाहते क्या हैं । तत्कालीन जी हुजूरी में लगे अधिकारी एवं चाटुकार जनप्रतिनिधियों की टोली व प्रबंधन समिति की कथित सहमति से 3 दिवसीय होने वाला भोरम देव महोत्सव 2 दिवसीय कर दिया गया । जबकि नागरिक तीन दिवसीय करने की माग करते रह गए पर पर जी हुजूरी में लगे समिति के तत्कालीन सचिव नक्सलियों का खतरा बता कर 2 दिन करने की बात करते रहे तो तत्कालीन जिलाधीश वित्तीय वर्ष मार्च की समाप्ति का सप्ताह का हवाला दे दो दिन करने का तर्क देते रहे। काबिले गौर है कि भोरमदेव महोत्सव अक्सर मार्च के अंतिम सप्ताह और अप्रैल के प्रथम सप्ताह में ही अक्सर होते रहा है । कई बार तो 30 व् 31 मार्च को भी कार्यक्रम हुआ है पर इस बार मार्च माह की वित्तीय वर्ष की समाप्ति में ऐसी क्या समस्या आ रही है की कलेक्टर को 3 दिवसीय महोत्सव को 2 दिन करने मजबूर होना पड़ा । वहीं समिति के तत्कलीन जिम्मेदार सदस्य एवं जनप्रतिनिधी इतने गंभीर एवं संवेदनशील मुद्दे पर चुप्पी साधे बैठ मूकदर्शक बने रहे जो कि चौक-चौराहों में चर्चा का विषय बना था ।
वर्ष 2024 के भोरमदेव महोत्सव भी लोकसभा आचार संहिता के नाम पर भी खनापूर्ती वाला आयोजन नज़र आने लगा है बीते दिन तक आयोजन की अनुमति नही मिलने की खबरो बीच सोशल मीडिया में निकला लोगो के गुस्से के बाद देर शाम आयोजन की अनुमति मिलने की खबर आई किंतु अंतराष्ट्रीय स्तर पर ख्यातिलब्ध भोरमदेव महोत्सव में अंतरराष्ट्रीय स्तर का कार्यक्रम का आयोजन कार्यक्रम का प्रचार प्रसार ना हो पाना आचार संहिता के नाम पर आयोजन समिति की कमजोरी दिखा रहा । आचार संहिता में ये कोई पहला आयोजन नही है इसके पहले के भी वर्षों में कई बार आचार संहिता के दौरान बड़े बड़े कार्यक्रम अंतराष्ट्रीय स्तर के हुए बस नेताओ को इस दौरान मंच में जगह नही मिलती थी किन्तु इस बार आचार संहिता के बहाने आयोजन में कार्यक्रमो का चयन अंतरराष्ट्रीय स्तर का ना होना जरूर चर्चा का विषय बना हुआ है ।
आखिर कब आदिवासियों के आदिदेव बुढ़ादेव (भोरमदेव) के आँगन में आदिवासियों की सभ्यता एवं संस्कृ़ति की पहचान तेरस के मेले को पुन: अपना खोया हुआ गौरव प्राप्त होगा जोकि चकाचौंध लाईटों और डी.जे. की धुनों में कहीं खो सी गयी है।
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