राजस्थान में डिजिटल इमरजेंसी ही विकल्प क्यों ? क्या सरकार की नाकामी या...

 


अमन ठठेरा की कलम से

दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश जो तकनीकी और डिजिटल युग में अपने नए आयाम स्थापित कर रहा है वही दूसरी ओर राजस्थान में डिजिटल इमरजेंसी का चलन काफी बढ़ गया है।सरकार और सरकारी तंत्र अपनी फैल्योर ( विफलता) को छिपाने के लिए डिजिटल इमरजेंसी को राजस्थान में अपना हथियार बनाती  नज़र आ रहा हैं । इसमें सरकार तमाम मुद्दों पर चाहे वो पेपर लिक़ मामला हो या प्रतियोगी परिक्षा और सबसे मह्त्वपूर्ण किसी राज्य की आंतरिक सुरक्षा हैं जो सांप्रदायिक दंगे हाल ही में करौली जोधपुर भीलवाड़ा आदि जिलों में हुए उसमें अपनी नाकामियों छुपाने के लिए सरकार इंटरनेट बंदी को हथियार बनाती नजर आ रही है। अभी पिछले दिनों झीलों की नगरी उदयपुर में निर्मम हत्या का जो स्वरूप राजस्थानियों देखा उससे राजस्थान सरकार का फैल्योर जनता के सामने उजागर हो गया । उदयपुर में हुई आंतकी घटना और इस घटनाक्रम को लेकर सरकार और राजस्थान का कानूनी तंत्र की विफलता छुपाने के लिए फिर से सरकार ने नेटबंदी को हथियार बनाने से पीछे नहीं हटी और इसका खामियाजा 3 दिन से जनता भुगत रही है। जबकि इंटरनेट सुविधा को सर्वोच्च न्यायालय ने आधारभूत सुविधा माना है। सर्वोच्च न्यायालय ने इंटरनेट को लेकर जनवरी 2020 में मौलिक अधिकारों में अनुच्छेद 19 के तहत इंटरनेट को मौलिक अधिकार  कहते हुए यह टिप्पणी  की यह जीने का हक जैसा ही अधिकार है लेकिन मुझे यह कहते हुए कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी की राजस्थान में सरकार सर्वोच्च न्यायालय की अवहेलना करती नज़र आ रही हैं ?  भारत में कश्मीर राज्य के बाद राजस्थान में इंटरनेट पर रोक के मामले में देश मे  दूसरे पायदान पर आता है। अगर बाकी राज्यों की बात करें तो अप्रैल महीने में ही मध्य प्रदेश में रामनवमी पर हुए दंगे में एमपी की सरकार ने 1 दिन के लिए भी इंटरनेट सेवा पर रोक नहीं लगाई जबकि वहाँ कर्फ्यू 3 दिन के लिए था । लेकिन राजस्थान सरकार की ओर से नेटबंदी से तात्पर्य क्या हैं ? आज डिजिटलाइजेशन का युग है जहाँ पलक झपकते ही टैक्सी आ जाती है, खाना आ जाता है, यहां तक लाखों रुपए का लेनदेन स्मार्टफोन के माध्यम से हो जाता है। इन सबके बावजूद भी सरकार की आंखें क्यों बंद हैं ?


हाल ही में उदयपुर घटनाक्रम को लेकर 2 दिन से राजस्थान में नेटबंदी के कारण लाखों लोग जिनका रोजगार स्विगी जोमैटो जैसी फूड डिलीवरी सर्विस वहीं दुसरी ओर ट्रैवलिंग के लिए जनता के साथ साथ ड्राइवर जो उबर ओला टैक्सी सर्विस जैसी कंपनियों से ताल्लुक रखते हैं उन्हें 3 दिन से नेटबंदी के कारण समस्या के साथ-साथ लाखों लोग की आमदनी ठप सी हो गई हैं।   राजस्थान में कारोबार के क्षेत्र में आमजन के साथ साथ  व्यापारी प्रतिदिन 600 करोड़ के आसपास का लेनदेन डिजिटल माध्यम से करता है लेकिन नेटबंदी के कारण नुकसान और कठनाई का सामना करना पड़ रहा हैं। आज आमजन समस्त सुविधा के लिए इंटरनेट और मोबाइल पर निर्भर सा हो चुका है चाहें वो सुविधा मूवी टिकट, फ्लाइट बुकिंग, रेल यात्रा बुकिंग, बैंकिंग सर्विस, ऑनलाइन पेमेंट ,डेबिट एंड क्रेडिट कार्ड पेमेंट , ऑनलाइन फूड होम डिलीवरी ,ऑनलाइन शॉपिंग, होटल बुकिंग, बिल डिपॉजिट आदि कि तमाम सर्विस हैं जो आमजन के लिए नेटबंदी वाकई आपातकाल सी बन गई है नेटबंदी ने राजस्थानियों को कई मायनों में प्रभावित किया हैं।

 लेकिन सरकार आंख बंद कर  अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए नेटबंदी को हथियार बना रही है मुझे यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी की सरकार अपनी नाकामियों की जवाबदेही बनने की बजाय आमजन का डिजिटल युग में गला घोटती नजर आ रही है। राजस्थान में आमजन को डिजिटल इमरजेंसी की सजा देना आदत सी बन गई है । सूत्रों के अनुसार कुछ आंकड़े बताते हैं कुछ सालों में ही 86 से ज्यादा बार इंटरनेट पर रोक लगाई गई है। राजस्थान में 3 साल में कोई प्रतियोगी परीक्षा बेदाग नहीं  रही और यहां तक सरकार द्वारा प्रतियोगी परीक्षा में नेटबंदी के पश्चात भी वे परीक्षा विवादों में पाई गई । सरकार को सोचना होगा कि नेटबंदी समस्या का समाधान नहीं  बल्कि एक अभिशाप सा बनता नज़र आ रहा हैं और यहाँ तक नेटबंदी समस्या को बढ़ावा देती दिख रही हैं  जो कई मायनों में हो सकती है चाहे रोजगार या कारोबार के क्षेत्र में हो या आमजन की सुविधा के क्षेत्र में और यहाँ तक यह नेटबंदी कहीं ना कहीं राज्य और देश की जीडीपी डगमगाने जैसी स्थिति उत्पन्न कर सकती हैं। सरकार को आंतरिक सुरक्षा और अवैध कृत्य को मद्देनजर रखते हुए इस बेतुके नेटबंदी फैसले को खत्म करना होगा और वैकल्पिक उपाय के बारे में सोचना होगा। यही नहीं  राज्य का कानूनी ढांचा मजबूत करने की आवश्यकता भी होनी चाहिए। नेटबंदी के फैसले को खत्म करना ही सही मायने में  राजस्थान में डिजिटाइजेशन युगअपने आयाम स्थापित कर पाएगा।

 


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